मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

अनकही 

रह जाती है बहुत कुछ 
अनकही 
सुप्त, या फिर बेबस, बेचैन ,
शब्द बन जन्म लेते है 
जज्बात
मंथन गतिमान होता
उड़कर बाहर आने को आतुर  
व्याकुल 
होठों तक पहुँच काँप उठते 
फिर भी अनकही रह जाती ,
ख़ामोशी 
एक चादर तान देती 
और छिप कर रह जाते 
बहुत कुछ,
एक प्रयत्न पुन:
गतिमान 
शब्दों का निर्मित स्वरुप 
भावों की उड़ान
सागर की लहरों सा 
संघर्ष  
फिर भी रह जाती 
अनकही ।
  

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012



जीवन में सुख

 क्यों री कोयल 
तुम फिर कूकने लगी 
                        अमराइयों में
मदमस्त बावरी सी 
अपने प्रियतम
ऋतुराज वसंत को 
                     रिझाने में।


                           







सुध बुध खोयी तुम 
फिरती हो इधर- उधर चंचल सी 
कुहुक- कुहुक उठती हो छिपकर 
                             मंजरियों में 
तुम जानती हो, तेरा प्रियतम 
पुनः चला जायेगा तुम्हें छोड़कर        
                        इन्हीं फिजाओं  में 
तब तुम प्रेमोन्नत हो 
मौन हो जाओगी , पुनः उसके 
                               विरह में
 फिर भी जी लेना चाहती हो तुम 
 एक एक पल अनुरक्त होकर 
एक सीख देती हुई 
की जीवन में सुख है 
                             थोड़ा पाने में ।